राज्य स्थापना के 24 वर्ष: नहीं रूक पाया पलायन, रोजगार के लिए खाली हो रहे गांव  

देहरादून। उत्तराखंड राज्य गठन के 24 वर्षों में भी राज्य में पलायन की समस्या का समाधान नहीं हो पाया। प्रदेश में पर्वतीय क्षेत्रों से पलायन इन 24 वर्षों में घटने के बजाए बढ़ा है। पलायन के कारण उत्तराखंड के कई गांव जन विहीन हो चुके हैं। रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य की खातिर लोगों ने गांवों से पलायन किया है। कई गांव आज तक सड़क सुविधा से नहीं जुड़ पाए हैं। कुछ गांवों में पेयजल और सिंचाई की समस्या भी बनी हुई है। सिंचाई सुविधाओं का विकास न हो पाने के कारण खेती पूर्ण रूप से इंद्र देव की कृपा पर निर्भर है। पर्वतीय क्षेत्र के अधिकतर गांवों में जंगली जानवर लोगों के लिए परेशानी का कारण बने हुए हैं, जंगली जानवरों द्वारा लोगों की फसलों को नुकसान पहुंचाया जा रहा है, जिस कारण लोग खेती करना छोड़ रहे हैं। स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव बना हुआ है, कहीं अस्पताल हैं तो उनमें चिकित्सक नहीं, तो कहीं अस्पतालों में दवाइयां व अन्य सुविधाएं नहीं।
इन 24 वर्षों में उत्तराखंड ने कई चुनौतियों का सामना करते हुए विकास के नए आयाम छुए हैं, लेकिन, इन सभी उपलब्धियों के बीच एक समस्या है, जो अब भी राज्य के भविष्य पर सवालिया निशान लगाए हुए है वह है, उत्तराखंड के गांवों से हो रहा पलायन। खाली होते गांव और घटती आबादी, इन वर्षों में थमने का नाम नहीं ले रही है। पलायन उत्तराखंड की सबसे बड़ी समस्या बनी हुई है। सरकार के तमाम प्रयासों के बाद भी पलायन पर रोक नहीं लग पाई, गांवों से पलायन लगातार जारी है। कुछ गांव पूर्ण रूप से खाली हो चुके हैं, जबकि कुछ खाली होने के कगार पर है। खाली होते गांव और घटती आबादी थमने का नाम नहीं ले रही है। इन 24 सालों में पलायन का कोई स्थायी समाधान नहीं निकल पाया। उत्तराखंड ने अपने 24 वर्षों के सफर में कई ऐसे महत्वपूर्ण कार्य किए हैं, जिन्होंने राज्य में मूलभूत सुविधाओं के ढांचागत विकास को मजबूत किया है, लेकिन पलायन नहीं रूक पाया। 2011 की जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि पलायन के चलते उत्तराखंड के अलग-अलग जिलों में 2.85 लाख घरों में ताले लटके हैं। यही नहीं, 1,034 गांव घोस्ट विलेज घोषित किए जा चुके हैं, यानी इन गांवों में कोई नहीं रहता और वहां के घर खंडहर में तब्दील हो गए हैं। करीब 2000 गांव ऐसे हैं, जिनके बंद घरों के दरवाजे पूजा अथवा किसी खास मौके पर ही खुलते हैं। गांवों से पलायन का असर असर खेती पर भी पड़ रहा है। सरकार भी मानती है कि 2001 से अब तक 70 हजार हेक्टेयर कृषि भूमि बंजर में तब्दील हो गई है, हालांकि, गैर सरकारी आंकड़ों पर गौर करें तो बंजर कृषि भूमि का रकबा एक लाख हेक्टेयर से अधिक हो सकता है। गांवों में लोगों को न तो शिक्षा और न ही स्वास्थ्य सुविधाएं ढंग से मिल पाती हैं। सबसे बड़ी बात रोज़गार के अवसर की कमी है, जो पलायन का एक बड़ा कारण है। इन्हीं चीज़ों के अभाव के चलते लोगों को अपने पैतृक गांवों को छोड़ना पड़ता है और आजीविका के लिए देश के अन्य हिस्सों की ओर पलायन करना पड़ता है।

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