कुपोषण की समस्या के निपटने को कारगर कदम उठाने की जरूरत 

देश में कुपोषण की समस्या लगातार बनी हुई है। सरकार द्वारा कुपोषण की समस्या के निपटने के जो प्रयास किए जा रहे हैं वे नाकाफी साबित हो रहे हैं। भारत विश्व में सर्वाधिक कुपोषित बच्चों का देश बना हुआ है। यहां हर चौथा बच्चा कुपोषण का शिकार है। वैश्विक भुखमरी सूचकांक 2020 की रिपोर्ट के मुताबिक, 107 देशों में से केवल 13 देश ही कुपोषण के मामले में भारत से खराब स्थिति में हैं। दुनिया में करीब 69 करोड़ लोग कुपोषित हैं। वहीं भारत की 14 प्रतिशत आबादी अल्पपोषित है। आजादी के 74 वर्षों के बाद भी भारत से कुपोषण जैसी समस्या को समाप्त नहीं किया जा सका है। पोषण कार्यक्रमों को एक जन आंदोलन के रूप में बदलने की जरूरत है। 
हमारे देश में बाल मृत्यु दर में कुछ सुधार हुआ है, जो अब 3.7 प्रतिशत है, परंतु यह दर भी अन्य देशों की तुलना में बहुत अधिक है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार देश में हर दूसरी महिला खून की कमी का शिकार है। हर तीसरा बच्चा छोटे कद का है। आजादी के 74 वर्षों के बाद भी भारत से कुपोषण जैसी समस्या को समाप्त नहीं किया जा सका है, जबकि आजादी के बाद से देश में खाद्यान्न के उत्पादन में पांच गुना वृद्धि हुई है। यदि बच्चे कुपोषित पैदा हो रहे हैं तो एक निष्कर्ष यह भी है कि उनकी माताओं का स्वास्थ्य ठीक नहीं है। गरीबी, अशिक्षा और अज्ञानता के चलते गर्भावस्था के दौरान जरूरी खानपान न मिल पाना कुपोषण की एक श्रृंखला को जन्म देता है।
आवश्यकता है। ऐसा करके ही 2022 तक कुपोषण मुक्त भारत एवं 2030 तक गरीबी को समाप्त करने के लक्ष्य को हासिल किया जा सकेगा। इसके लिए कुपोषित परिवारों की पहचान कर उन्हें सामाजिक सुरक्षा प्रदान की जानी चाहिए। भारत में पोषण कार्यक्रमों को एक जन आंदोलन में बदलना होगा, जिसमें सबकी भागीदारी सुनिश्चित होनी चाहिए। इसके लिए स्थानीय निकायों, सामाजिक संगठनों, सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्र के प्रतिनिधियों की व्यापक स्तर पर भागीदारी भी सुनिश्चित की जानी चाहिए। समय-समय पर कुपोषण संबंधी डाटा का मूल्यांकन, उसे कम करने के प्रयासों की समीक्षा एवं जिम्मेदार व्यक्तियों की जवाबदेही भी सुनिश्चित की जानी चाहिए। कुपोषण को जड़ से खत्म करना होगा। आगामी पीढ़ियों को कुपोषण और उसके चलते होने वाली बीमारियों से बचाकर ही मजबूत भारत का निर्माण किया जा सकता है। विकास के तमाम दावों के बावजूद देश अभी भी गरीबी और भुखमरी जैसी समस्याओं से बाहर नहीं निकल सका है। एक तरफ तो हम दुनिया के दूसरे सबसे बड़े खाद्यान्न उत्पादक देश हैं, लेकिन दूसरी तरफ कुपोषण के आंकड़े सोचने के लिए मजबूर करते हैं। यही वजह है कि देश में हर साल एक से सात सितंबर तक राष्ट्रीय पोषण सप्ताह मनाया जाता है। इसका मुख्य उद्देश्य कुपोषण को लेकर लोगों को जागरूक करना है।
देश में फैले कुपोषण को लेकर आँकड़े काफी चिंताजनक हैं। विश्व में 5 वर्ष तक की उम्र के प्रत्येक 3 बच्चों में से एक बच्चा कुपोषण अथवा अल्पवजन की समस्या से ग्रस्त है। पूरे विश्व में लगभग 200 मिलियन तथा भारत में प्रत्येक चौथा बच्चा कुपोषण के किसी-न-किसी रूप से ग्रस्त है। जन्म के बाद बच्चों को जिन पोषक तत्त्वों की आवश्यकता होती है, उन्हें वह नहीं पाता है। भारत में तो स्थिति यह है कि बच्चों का न तो सही ढंग से टीकाकरण हो पाता है और न ही उन्हें इलाज की उचित व्यवस्था मिल पाती है, ऐसी स्थिति में कुपोषण जैसी समस्याएँ और अधिक गंभीर हो जाती हैं। शरीर को लंबे समय तक संतुलित आहार न मिलने से व्यक्ति की रोग प्रतिरोधक क्षमता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है, जिसके कारण वह आसानी से किसी भी बीमारी का शिकार हो सकता है। कुपोषण बच्चों को सबसे अधिक प्रभावित करता है। आँकड़े बताते हैं कि छोटी उम्र के बच्चों की मौत का सबसे बड़ा कारण कुपोषण ही होता है। स्त्रियों में रक्ताल्पता या घेंघा रोग अथवा बच्चों में सूखा रोग या रतौंधी और यहाँ तक कि अंधत्व भी कुपोषण का ही दुष्परिणाम है। कुपोषण का सबसे गंभीर प्रभाव मानव उत्पादकता पर देखने को मिलता है और इसके प्रभाव से मानव उत्पादकता लगभग 10-15 प्रतिशत तक कम हो जाती है, जो कि अंततः देश के आर्थिक विकास में बाधा उत्पन्न करती है। ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाली कुल जनसंख्या का लगभग 25.7 प्रतिशत हिस्सा अभी भी गरीबी रेखा के नीचे जीवन व्यतीत कर रहा है, जबकि शहरी क्षेत्रों में यह संख्या 13.7 प्रतिशत के करीब है। यद्यपि गरीबी अकेले कुपोषण को जन्म नहीं देती, किंतु यह आम लोगों के लिये पौष्टिक भोजन की उपलब्धता को प्रभावित कर सकती है। अधिकांश भोजन और पोषण संबंधी संकट भोजन की कमी के कारण उत्पन्न नहीं होते हैं, बल्कि इसलिये उत्पन्न होते हैं क्योंकि लोग पर्याप्त भोजन प्राप्त करने में समर्थ नहीं हैं। जल जीवन का पर्याय है। पीने योग्य पानी की कमी, खराब स्वच्छता और खतरनाक स्वच्छता प्रथाओं के कारण आम लोग जल जनित बीमारियों की चपेट में आ जाते हैं, जो कि कुपोषण के प्रत्यक्ष कारणों में से एक है। देश में पौष्टिक और गुणवत्तापूर्ण आहार के संबंध में जागरूकता की कमी स्पष्ट दिखाई देती है जिसके कारण तकरीबन पूरा परिवार कुपोषण का शिकार हो जाता है। किसी भी योजना के लिये आवंटित वित्त संसाधनों के अल्प-उपयोग से आगामी वर्षों के लिये होने वाला आवंटन भी प्रभावित होता है, जिससे बजट को बढ़ाने और पोषण योजनाओं पर ध्यान केंद्रित करने की संभावना भी सीमित हो जाती है। कई विशेषज्ञ कृषि को कुपोषण से संबंधित समस्याओं को संबोधित करने का अच्छा तरीका मानते हैं। किंतु देश की पोषण आधारित अधिकांश योजनाओं में इस और ध्यान ही नहीं दिया गया है। पोषण आधारित योजनाओं और कृषि के मध्य संबंध स्थापित करना आवश्यक है, क्योंकि देश की अधिकांश ग्रामीण जनसंख्या आज भी कृषि क्षेत्र पर निर्भर है और सर्वाधिक कुपोषण ग्रामीण क्षेत्रों में ही देखने को मिलता है।